Tuesday, March 1, 2016

मोबाइल में चार्ज करने के लिए इस्तेमाल होनेवाला ‘पावर बैंक’ क्या है?

मोबाइल में चार्ज करने के लिए इस्तेमाल होनेवाला ‘पावर बैंक’ क्या है?
शैल बाला करण, ‘पंचवटी’ (ग्रीन व्यू), भंवर पोखर, पटना-800004
पावर बैंक एक प्रकार का बैटरी चार्जर है, जिसमें चार्ज होने वाली बैटरी लगी है। इस बैटरी की क्षमता ज्यादा होती है। इसे भी उसी तरह चार्ज किया जाता है जैसे मोबाइल फोन की बैटरी को चार्ज करते हैं। आमतौर पर ये यूएसबी पोर्ट के मार्फत मोबाइल को चार्ज करते हैं और खुद भी यूएसबी पोर्ट से चार्ज होते हैं। इनकी मदद से कैमरा, पोर्टेबल स्पीकर, जीपीएस सिस्टम, एमपी3 प्लेयर और टेबलेट तक को चार्ज किया जा सकता है। अब सोलर पावर से चार्ज होने वाले पावर बैंक उपलब्ध हैं। इनकी एम्पियर आवर रेटिंग एमएएच से व्यक्त होती है।

कंप्यूटर कुकीज क्या होती हैं? इनकी लाभ-हानि क्या हैं?
गगन शर्मा, जीजी 1, 171 ए, विकासपुरी, नई दिल्ली

कुकी एक छोटी फाइल होती है जो कम्प्यूटर की हार्ड डिस्क में सेव होती जाती है. अकसर कम्प्यूटर सेव करने से पहले आपकी वरीयता पूछता भी है। हम कुकीज को स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं। ज्यादातर वैब ब्राउजर स्वत: इन्हें स्वीकार करते हैं. पर आप चाहें तो ब्राउजर की सैटिंग में संशोधन कर सकते हैं। कई बार होता है कि कोई वेबसाइट विशेष नहीं खुलती तो मैसेज आता है कि अपनी कुकीज सैटिंग चेंज करें। यह फाइल वैब ट्रैफिक का विश्लेषण करने तथा किसी विशेष वैबसाइट पर जाने में मदद करती है। कूकी उन वेब एप्‍लीकेशनों को संचालित करने मददगार होती है जो इंटरनेट पर हमारी प्राथमिकताओं, रुचि आदि पर निगाह रखते हैं। इनकी मदद से वैबसाइट संचालक यह जान पाता है कि वैबसाइट पर कौन, कितनी देर रहता है और क्या देखता है।
कुकीज एक छोटा सा टेक्स्ट मैसेज होता है। यदि हम ब्राउजर की मदद से कुकीज को अस्वीकार कर दें तो कुछ साइट खुलने से इंकार कर देती हैं। गूगल भी आप तक पहुँचने में कुकी का प्रयोग करता है। आपने देखा होगा कि आप नेट के मार्फत जब कोई खरीदारी करते हैं तब उसके बाद ज्यादातर वैबसाइट पर उन्हीं वस्तुओं के विज्ञापन नजर आने लगते हैं। गूगल एडसेंस के विज्ञापन आपकी जानकारी और पसंद के हिसाब से ही दिखाए जाते हैं।

कलम या पैन का आविष्कार किसने और कब किया था?
उदयराज वर्मा, छिटेपुर सैंठा, गौरीगंज, अमेठी-227409 (उ.प्र.)

आज से पाँच हजार साल से भी पहले हमारे पूर्वज सरकंडे या बाँस की कलम को स्याही में डुबाकर लिख रहे थे। इस लिहाज से वह पेन था। स्टीवन रोजर फिशर ने अपनी किताब ‘अ हिस्ट्री ऑफ राइटिंग’ में लिखा है कि ईसा से 3000 साल पहले मिस्र के सक्कर इलाके में कलम से लिखा जा रहा था। प्राचीन चीन में कागज की ईज़ाद के साथ लिखने का सीधा सम्बंध था। मिस्र में इसे पैपीरस कहते थे। कलम का इस्तेमाल लिखने के पहले रेखाचित्र और पेंटिंग में हुआ होगा। चीन और पूर्वी इलाकों में लिखने के लिए तूलिका या ब्रश का इस्तेमाल होता था। इस अर्थ में पेन से पहले पेंसिल आई होगी। जब इंसान लिखना नहीं जानता था वह जली हुई लकड़ी के कोयले या चारकोल से गुफाओं में तस्वीरें बनाने लगा था, जो पेंसिल ही थीं।

कार्बन से बनी स्याही या इंडिया इंक का आविष्कार भी चीन में ईसा के ढाई हजार साल पहले हो गया था। भारत सहित सभी प्राचीन सभ्यताओं का शुरूआती लेखन बाँस या लकड़ी को काटकर बनाए गए कलमों से हुआ होगा। इसके अलावा पक्षियों के पंखों के पिछले हिस्से से भी लिखा जाता था, जिसे क्विल कहते हैं। पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी तक यह कलम दुनिया भर में प्रचलित रहा। सन 1822 में जॉन मिशेल ने बर्मिंघम, इंग्लैंड में धातु का निब तैयार किया। इससे कलम को एक नई दिशा मिली। पर दूसरा महत्वपूर्ण आविष्कार था फाउंटेन पेन का। ऐसा लगता है कि धातु का निब आने के बाद फाउंटेन बना होगा, पर ऐसा नहीं है। दसवीं सदी में पश्चिमोत्तर अफ्रीका के, जिसे मगरिब कहते हैं, खलीफा म’आद-अल-मु’इज़ ने कहा कि लिखने पर कलम की स्याही से हाथ गंदा हो जाता है। इसे ठीक किया जाए। बताया जाता है कि इसकी जुगत में ऐसा कलम बनाया गया, जिसकी नोक के पीछे स्याही भरी रहती थी। हालांकि इसके बारे में ज्यादा विवरण नहीं मिलता, पर बाद में यूरोप में चिड़िया की दो क्विल जोड़कर बनाए गए फाउंटेन पेन का जिक्र मिलता है।

जर्मन आविष्कारक डैनियल श्वेंटर ने क्विल से बने ऐसे पेन का जिक्र किया है, जिसके पीछे वाले खोखले हिस्से में स्याही भरी जाती थी और अगला नुकीला हिस्सा निब का काम करता था। बहरहाल 1828 के बाद बर्मिंघम में धातु के पेन और निब बनने लगे। सन 1850 में दुनिया में बनने वाले पेन और निबों में से 50 फीसदी बर्मिंघम से ही बनकर आते थे। यों पहला पूर्ण फाउंटेन पेन 1883 में बना।

इसके बाद फैल्ट पैन, बॉल पेन, से लेकर जैल पेन तक इससे जुड़े आविष्कार होते गए और अब अंतरिक्ष में काम करने वाला पेन भी बना लिया गया। पेन के साथ पेंसिल का भी थोड़ा जिक्र होना चाहिए। सन 1795 में ग्रेफाइट के पाउडर और मिट्टी को मिलाकर सख्त पेंसिल की ईज़ाद फ्रांसीसी रसायन शास्त्री निकोलस याकस कोंतें ने की। सन 1800 के आसपास बाँस में पेंसिल की बत्ती को डालकर पेंसिल बनाई थी।

अक्सर छातों का रंग काला होता है, जबकि काला रंग प्रकाश का अच्छा अवशोषक है, जिसकी वजह से छाता-धारक को ज्यादा गर्मी का आभास होता है? ऐसा क्यों?
डॉ. जीडी आर्या, द्वारा: लक्ष्मी आर्या नर्सिंग होम, गली चंद्र वैद्य, तांगा अड्डे के पास,  ताजगंज, आगरा

यह बात सही है कि काला रंग ज्यादा गर्मी को सोखता है, इसलिए भारत जैसे देशों में छातों का रंग सफेद, आसमानी या की हल्का रंग होना चाहिए। भारत में आधुनिक किस्म के छातों का इस्तेमाल अंग्रेजी राज में शुरू हुआ था। अंग्रेजों के परिधान में काला रंग प्रमुखता रखता है। खासतौर से सूट के साथ काला रंग मेल खाता है। यों वहाँ छाता केवल धूप से बचाने के लिए ही नहीं वर्षा और हिमपात से बचाने का काम भी करता है। काला छाता धूप की चमक को भी कम करता है। जिन इलाकों में बर्फ गिरती है वहाँ धूप की चमक भी ज्यादा होती है। इसके अलावा वह जल्द गंदा नजर नहीं आता। इन बातों के बावजूद काले के अलावा दूसरे रंग के छातों का चलन बढ़ रहा है। इसका फैशन से भी रिश्ता है।

कादम्बिनी नवम्बर 2015 के अंक में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...